कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
एक दिन वह इसी उलझन में नदी के तट पर बैठे हुए थे। जलधारा तट के दृश्यों और वायु के प्रतिकूल झोंकों की परवा न करते हुए बड़े वेग के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी चली जाती थी। पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था, वह अपने स्मृति-भंडार से किसी ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष को खोज निकालना चाहते थे, जिसने जाति सेवा के साथ विज्ञान सागर में गोते लगाए हों। सहसा उनके कालेज के एक अध्यापक पंडित अमरनाथ अग्निहोत्री आकर उनके समीप बैठ गए और बोले- कहिए लाला गोपीनाथ, क्या खबरें हैं?
गोपीनाथ ने रुखाई से उत्तर दिया- कोई नई बात तो नहीं हुई। पृथ्वी अपनी गति से चली जा रही है।
अमरनाथ- म्युनिसिपल बोर्ड नंबर 21 की जगह खाली है, उसके लिए किसे चुनना निश्चित किया है?
गोपीनाथ- देखिए, कौन होता है। आप भी खड़े हुए हैं।
अमरनाथ- अजी, मुझे तो लोगों ने जबरदस्ती घसीट लिया, नहीं तो मुझे इतनी फुर्सत कहाँ?
गोपीनाथ- मेरा भी यही विचार है। अध्यापकों का क्रियात्मक राजनीति में फँसना बहुत अच्छी बात नहीं।
अमरनाथ इस व्यंग्य से बहुत लज्जित हुए। एक क्षण के बाद प्रतिकार के भाव से बोले- तुम आजकल दर्शन का अध्ययन करते हो या नहीं?
गोपीनाथ- बहुत कम। इसी दुविधा में पड़ा हूँ कि राष्ट्रीय सेवा का मार्ग ग्रहण करूँ या सत्य की खोज में जीवन व्यतीत करूँ?
अमरनाथ- राष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मिलित होने का समय अभी तुम्हारे लिए नहीं आया। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? जब तक विचारों में गांभीर्य और सिद्धान्तों पर दृढ़ विश्वास न आ जाय, उस समय तक केवल क्षणिक आवेशों के वशवर्ती होकर किसी काम में कूद पड़ना अच्छी बात नहीं। राष्ट्रीय सेवा बड़े उत्तरदायित्व का काम है।
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